सादर जय जिनेन्द्र!

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आलोचना पाठ

वंदौं पाँचों परम गुरु, चौबीसों जिनराज। करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरण के काज॥ १॥ सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी। तिनकी अब निर्वृत्ति काजा, तुम सरन लही जिनराजा॥ २॥ इक वे ते चउ इन्द्री वा, मनरहित-सहित जे जीवा। तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदय ह्वै घात विचारी॥ ३॥ समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन…

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