सादर जय जिनेन्द्र!

आपको इस वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारियां कैसी लगी.
हमें आपका जरूर कराएं।

Latest

राजकुमार श्रेयांस द्वारा दान तीर्थ की प्रवृत्ति: जैन धर्म का महत्वपूर्ण पहलू

राजकुमार श्रेयांस द्वारा दान तीर्थ की प्रवृत्ति: जैन धर्म का महत्वपूर्ण पहलू
Spread the love

भगवान ने निराहार रहकर प्रतिमयोग धारण कर छः माह तक तपस्या करने का जो नियम लिया था वह पूर्ण हुआ। निराहार रहने से न तो भगवान का शरीर कृश हुआ और न उनके तेज में ही अंतर पड़ा। वे चाहते तो बिना आहार के ही आगे भी तपस्या करते और इसका उनके शरीर पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु उन्होंने विचार किया कि वर्तमान में अथवा भविष्य में मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से जो लोग तप करेंगे, यदि वे आहार नहीं करेंगे तो आहार के अभाव में उनकी शक्ति क्षीण हो जाएगी। मोक्ष, अर्थ और काम का साधन धर्म पुरुषार्थ है। धर्म का साधन शरीर है और शरीर अन्न पर निर्भर है। अतः परम्परा से अन्न भी धर्म का साधन है। अतः इस भरतक्षेत्र में शासन की स्थिरता और मनुष्यों की धर्म में आस्था बनाए रखने के लिए मनुष्यों को निर्दोष आहार ग्रहण करने की विधि दिखानी होगी। अतः परोपकार के लिए उन्होंने (ऋषभदेव ने) गोचर विधि से अन्न ग्रहण करने का विचार किया।
भगवान अपना ध्यान समाप्त करके आहार के लिए निकले। उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त होने तक मौन व्रत ले लिया था। वे चान्द्री चर्या से विचरण करते हुए मध्याह्न के समय किसी नगर या ग्राम में चर्या के लिए जाते थे। प्रजाजन मुनिजनोचित आहार की विधि नहीं जानते थे,न उन्होंने कभी किसी को मुनि को आहार देते हुए देखा-सुना था। किन्तु भगवान में उनकी अपार श्रद्धा थी। भगवान का दर्शन पाकर वे हर्षित हो जाते थे और भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए वे विविध प्रकार के उपायन – भेंट लाकर भगवान के चरणों में चढ़ा देते थे। कोई वस्त्राभूषणों को लाता, कोई गंध, माल्य, विलेपन, रत्न, मुक्ता, गज, अश्व या रथ लाकर भगवान को भेंट चढ़ाते, किन्तु भगवान उन वस्तुओं की ओर देखे बिना ही आगे बढ़ जाते थे। इससे लोग अपनी कोई कल्पित भूल या कमी का अनुभव करके बड़े खिन्न हो जाते। किन्तु उन्हें एक संतोष भी था कि आज हमें भगवान के दर्शन हो गए।
भगवान विहार करते हुए हस्तिनापुर नगरी में पहुंचे। भगवान को निराहार विहार करते हुए छः माह व्यतीत हो चुके थे। हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ थे और उनके लघु भ्राता श्रेंयास कुमार थे। ये दोनों बाहुबली के यशस्वी पुत्र थे। कुमार श्रेयांस ने रात्रि के अंतिम प्रहर में शुभ स्वप्न देखे। स्वप्न में उन्होंने चंद्रमा, इंद्र की ध्वजा, सुमेरु पर्वत, बिजली, कल्पवृक्ष, रत्नद्वीप, विमान और भगवान ऋषभदेव को देखा।

हरिवंश पुराण में इस स्वप्न वर्णन से आदिपुराण के स्वप्न विवरण में कुछ अंतर हैं। आदि पुराण के अनुसार श्रेयांस कुमार ने स्वप्न में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत, आभुषणों से सुशोभित कल्पवृक्ष,अयालों वाला सिंह, चंद्रमा, समुद्र और अष्ट मंगल द्रव्य धारण किए हुए व्यन्तरों की मूर्तियां देखी। एक अंतर यह है भी कि आदि पुराण के अनुसार ये स्वप्न केवल श्रेयांस कुमार ने देखे थे, जबकि हरिवंश पुराण के अनुसार ये स्वप्न दोनों भाइयों ने देखे थे।
श्रेयांस कुमार प्रातः काल उठे और वे अपने भाई के पास गये। उन्होंने उनसे अपने स्वप्नों की चर्चा की। राजपुरोहित ने स्वप्न सुनकर उनका फल इस प्रकार बताया – सुमेरु पर्वत देखने से यह प्रगट होता है कि सुमेरु के समान उन्नत और सुमेरु पर्वत पर जिनका अभिषेक हुआ है, ऐसा कोई देव आज अवश्य ही हमारे घर आयेगा। अन्य स्वप्न भी उसके गुणों को प्रगट करते हैं। आज हमें जगत में प्रशंसा और सम्पदा प्राप्त होगी।
सभी मिलकर स्वप्न चर्चा कर रहे थे,उसी समय भगवान ने हस्तिनापुर नगरी में प्रवेश किया। नगरवासी भगवान के दर्शनों के लिए एकत्रित होने लगे। लोग आपस में कह रहे थे – हम लोग जगत के पालनकर्ता पितामह भगवान ऋषभदेव का नाम बहुत दिनों से सुनते आ रहे थे,आज वे हमारा पालन करने के लिए वन छोड़कर हमारे इस नगर में साक्षात् पधारे हैं। आज हमारा पुण्योदय हुआ है कि हम अपने नेत्रों से उन भगवान के दर्शन करेंगे।
कुछ लोग भक्तिवश, कुछ लोग उत्सुकतावश भगवान के दर्शनों के लिए एकत्रित हो गए। जनता की भीड़ के कारण राजमार्ग और राजमहल तक भर गये। किन्तु भगवान मैत्री, प्रमोद,कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं का विचार करते हुए चार हाथ प्रमाण भूमि को देखते हुए मन्थर गति से जा रहे थे। इस प्रकार भगवान चर्या के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश करते हुए राजभवन में पहुंचे।
सिद्धार्थ नामक द्वारपाल ने राजा सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयांस को राजभवन में भगवान के आने का समाचार दिया। सुनते ही वे दोनों अन्त:पुर की रानियों, मंत्रियों और राजपुरुषों के साथ आंगन में आये। उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान को नमस्कार किया। भगवान के चरणों को जल से धोकर अर्ध्य चढ़ाया और उनकी प्रदक्षिणा दी। उनके मन में भक्ति और हर्ष का अद्भुत उद्रेक हो रहा था।

तभी एक अद्भुत घटना हुई। भगवान का रूप देखते ही श्रेयांस कुमार को जाति स्मरण हो गया तथा पूर्वजन्म में मुनियों को दिए हुए आहार की विधि का स्मरण हो आया। उसे श्रीमती और वज्रजंघ के भव सम्बन्धी उस घटना का भी स्मरण हो गया,जब चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों को आहार दान दिया था। जाति स्मरण होते ही उसने श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान,अक्षोभ, क्षमा और त्याग इन सात गुणों से युक्त होकर – जो आहार दान देने के लिए आवश्यक है – निदान और दोषों से रहित होकर “भो स्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है” इस प्रकार मुनिराज को पड़गाहन कर उच्चासन पर विराजमान किया। उनके चरणों का प्रक्षालन किया, उनकी पूजा की, उन्हें नमस्कार किया, अपने मन-वचन-काय की विशुद्धि पूर्वक आहार शुद्धि का निवेदन किया। इस प्रकार नवधाभक्ति पूर्वक श्रेयांस कुमार ने दान के विशिष्ट पात्र भगवान को प्रासुक आहार दान दिया। अकिंचन भगवान ने खड़े रहकर हाथों में ही (पाणिपात्र होकर) आहार ग्रहण किया।


उस समय वहां इक्षुरस से भरे हुए कलश रखे थे। श्रेयांस कुमार ने राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती के साथ भगवान को उसी इक्षुरस का आहार दिया। इधर भगवान की अञ्जुलि में इक्षुरस की धारा पड़ रही थी, उधर भगवान के आहार के उपलक्ष्य में देव लोग रत्नों की वर्षा कर रहे थे। कुछ देव पुष्प वर्षा कर रहे थे। देव हर्ष से भेरी-ताड़न कर रहे थे। शीतल सुगंधित मंद पवन बहने लगा, और देव लोग आकाश में “धन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य यह दाता” इस प्रकार कह कर दान की अनुमोदना कर रहे थे। तीर्थंकरों के आहार के समय ये पांच बातें अवश्य होती है, जिन्हें पंचाश्चर्य कहते है।
दोनों भाइयों के मन में हर्ष का मानो सागर ही उमड़ पड़ रहा था। आज त्रिलोक पूज्य तीर्थंकर प्रभु ने उनके घर पर पधार कर और आहार लेकर घर द्वार को पवित्र किया था। अनेक लोगों ने इस दान का अनुमोदन करके पुण्य-लाभ किया। आहार करके भगवान वन में लौट गये। दोनों भाई भी कुछ दूर तक भगवान के साथ गये। किन्तु जब लौटे तो वे रह-रहकर भगवान को ही देखते जाते थे। उनकी दृष्टि और चित्तवृत्ति भगवान की ओर ही लगी रही। भगवान के चरण जहां पड़े थे, उस स्थान की धूल को उठाकर वे बार-बार माथे से लगाते थे। मन में भगवान की मूर्ति और गुणों का अनुसरण करते जाते थे। वे जब लौटे तो सारा आंगन प्रजाजनों से संकुलित था। सब लोग उन दोनों भाइयों के ही पुण्य की सराहना कर रहे थे।
राजकुमार श्रेयांस के कारण ही संसार में दान की प्रथा प्रचलित हुई। दान देने की विधि भी श्रेयांस कुमार ने ही सर्वप्रथम जानी। सम्राट भरत को भी बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि श्रेयांस कुमार ने भगवान को अभिप्राय कैसे जान लिया। विशेष कर उस दशा में, जबकि भगवान मौन धारण करके विहार कर रहे थे। देवों ने आकर कुमार श्रेयांस की पूजा की। महाराज भरत चक्रवर्ती भी हस्तिनापुर पहुंचे। वे अपने कुतुहल को रोक नहीं पाये। उन्होंने श्रेयांस कुमार से पूछा – हे कुरु वंश शिरोमणि ! मुझे यह जानने का कुतूहल हो रहा है कि तुमने मौनधारी भगवान का अभिप्राय कैसे जान लिया ? दान की विधि को अब तक कोई नहीं जानता था, उसे तुमने कैसे जान लिया ? तुमने दान तीर्थ की प्रवृत्ति की है, तुम धन्य हो। हमारे लिए तुम भगवान के समान ही पूज्य हो। तुम महा पुण्यवान हो।

सम्राट के सराहना भरे शब्दों को सुनकर श्रेयांस कुमार प्रसन्न होते हुए बोले – जब मैंने भगवान का रुप देखा तो मेरे मन में अपार हर्ष हुआ। तभी मुझे जाति स्मरण हो गया जिससे मैंने भगवान का अभिप्राय जान लिया। जब भगवान विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में वज्रजंघ की पर्याय में थे,तब मैं इनकी श्रीमती नामक स्त्री था। उस पर्याय में वज्रजंघ सहित मैंने दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों को आहार दान दिया था। यह सब मुझे स्मरण हो आया था। इसलिए भगवान को मैंने आहार दान दिया।
इसके पश्चात् श्रेयांस कुमार ने भगवान के पिछले भवों का वर्णन किया। और दान देने की विधि विस्तार पूर्वक बताई। तब महाराज भरत ने दोनों भाइयों के प्रति बड़ा अनुराग प्रगट किया और उनका खूब सम्मान किया।
?‍♀️??‍♀️??‍♀️??‍♀️?

– दान तीर्थ- राजकुमार श्रेयांस- जैन धर्म- अक्षय तृतीया- दान का महत्व- जैन तीर्थंकर- भगवान आदिनाथ

जय जिनेन्द्र, आपको यह कंटेन्ट कैसा लगा??? हमें जरूर बताए, जिससे हम आपको और बेहतर कंटेन्ट दे सकेंगे।
+1
32
+1
19
+1
0
+1
0
+1
0

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

TOP