बारह भावना | BARAH BHAWANA
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार।
मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार॥
दल बल देवी देवता, मात-पिता परिवार।
मरती बिरियाँ जीव को, कोऊ न राखन हार॥
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान।
कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान॥
आप अकेला अवतरे, मरै अकेला होय।
यो कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय॥
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय।
घर सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय॥
दिपै चाम-चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह।
भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह॥
मोह नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा।
कर्म चोर चहुँ ओर, सरवस लूटैं सुध नहीं॥
सत्गुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमैं।
तब कछु बनहिं उपाय, कर्म चोर आवत रुकैं॥
ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधै भ्रम छोर।
या विधि बिन निकसैं नहीं, पैठे पूरब चोर॥
पंच महाव्रत संचरण, समिति पंच परकार।
प्रबल पंच इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार॥
चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान।
तामें जीव अनादितैं, भरमत हैं बिन ज्ञान॥
धन कन कंचन राजसुख,सबहि सुलभकर जान।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान॥
जाँचे सुर-तरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन।
बिन जाँचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन॥
बारह भावना | BARAH BHAWANA