आचार्य श्री 108 ज्ञान सागर जी महाराज – सराको के राम
1 May जन्म जयंती विशेष
चंबल के बीहड़ मुरैना (मध्य प्रदेश) में श्रावक श्रेष्ठी श्री शांति लाल जी एवं श्रीमती अशर्फी देवी जी के घर आंगन में 1 मई 1957, प्रात: 6:00 बजे बालक ‘उमेश’ ने जन्म लिया। जब बचपन में खेलने की उम्र होती है उस समय वह खेल- खेल में देवता की प्रतिमा बनाते नजर आते थे और उसे घंटो तक निहारते रहते थे और प्रतिमा को आधार बनाकर, ध्यान लगाते रहते थे, कक्षा के प्रतिभाशाली छात्र के रूप में आप विद्यालय के सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी के रुप में जाने जाते थे ।
अपने दादाजी श्री शंकर लाल जैन जी के साथ संस्कारों की सीढ़ी पर बालक उमेश ने चलना सीखा और मुनिसंघो के दर्शन कर अपने जीवन को वैराग्यमय बनाने का संकल्प ले लिया । फिरोजाबाद (उत्तर प्रदेश) में जब दादाजी के साथ आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज के दर्शनार्थ पहुंचे तो वहां हो रहे केशलोंच को देखकर बालक मन मैदान में पड़ी धूल को सिर पर डालकर अपने बालों को उखाड़ने लगा मानो वह दृढ़ निश्चयी बालक उमेश केशलोंच का अभ्यास कर रहा हो तभी वहाँ बैठे श्रद्धालुओं ने बालक को रोक दिया लेकिन कुछ उखड़े बालों ने पूरे बाल बनवाने को मजबूर कर दिया परन्तु यह तय हो गया कि मैं केशलोंच तो कर ही सकता हूं और संस्कारों का आरोहण प्रारंभ हो गया ।
मात्र 13 वर्ष की आयु में बाजार की वस्तुएँ ना खाने का नियम ले लिया बालक उमेश ने । पिच्छी और कमंडल से ऐसा अनुराग कि उन्हें अभी ले लूँ, वेश ब्रह्मचर्य का और घर छोड़ने की ज़िद्द पर, घर के लोगों ने उन्हें समझाया कि छोटी सी उम्र में गृह त्याग करना उचित नहीं है पहले ज्ञान अर्जन करो जिससे साधु बाने के साथ न्याय किया जा सके, संगीत के यंत्रों के साथ लौकिक शिक्षा में पारंगत उमेश ने जैन धर्म ग्रंथों का अध्ययन भी प्रारंभ कर दिया और कुमार अवस्था में त्याग की उत्कंठा को स्थापित कर त्याग मार्ग पर कदम बढ़ाना प्रारंभ किया ।
16 वर्ष की आयु में इनकी उदासीनता देखकर घरवालों ने विवाह के बन्धन में बाँधने का प्रयास किया, व्यापार में उलझाने के प्रयास किए, लेकिन जिसे संसार से पार होने का उपाय करना हो वह भला इन में कहाँ रमता हायर सेकेंडरी की परीक्षा भी उन्हें रोक न सकी और मुनिसंघ के विहार के साथ उमेश ने घर से विहार कर दिया और तय कर लिया अब इस संसार में ब्रह्मचर्य लेकर रहूंगा विवाह नहीं करूंगा ।
उस समय वीरगांव जिला अजमेर (राज.) में विराजित इस युग के संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज से 1974 में उमेश जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया और विशेष परिस्थिति को छोड़कर आजीवन रेल व बस का त्याग कर दिया आचार्य श्री से ब्र. उमेश जी ने “कातंत्र व्याकरण, तत्वार्थ सूत्र, जैन सिद्धांत प्रवेशिका” जैसे अनेक गूढ़ मूल ग्रंथों को पढ़ा और अपने आपको जैन दर्शन का ज्ञानी बनाया ।
ब्र. उमेश जी को अब वह धोती – दुपट्टा भी भारी लगने लगा और उन्होंने सोनागिर जी में विराजित आचार्य श्री सुमति सागर जी महाराज से दीक्षा हेतु निवेदन किया । 5 नवम्बर 1976 को उन्हें सोनागिर सिद्धक्षेत्र में क्षुल्लक दीक्षा के संस्कार मिले और वह ब्र. उमेश भैया से गुणों के सागर क्षुल्लक श्री गुण सागर जी महाराज के रूप में प्रतिष्ठापित हो गए ।
कर्मों के क्षय की प्रक्रिया में उन्हें क्षुल्लक अवस्था में आहार में अन्तराय आने लगे सुकोमल काया कृष होकर तप के प्रभाव से चमकने लगी, लेकिन विचलित नहीं हुई उन्हें त्यागी वृन्द “अन्तराय सागर” के नाम से जानने लगे । अन्तराय से निर्भीक बने गुण सागर, अन्तराय से ध्यान हटा अध्ययन में ध्यान लगाकर अपने आप को कठोर चर्या हेतु तैयार करते रहे और अनेक ग्रंथों का अध्ययन करने लगे ।
क्षुल्लक श्री गुण सागर जी महाराज के ज्ञान गुण का प्रभाव सामने दिखने लगा अनेक लोग उनके प्रवचनों से समाधान प्राप्त कर त्याग मार्ग की ओर बढ़ने लगे, सागर जिले के इशुरवारा में प्रवास के दौरान एक युवक जय कुमार क्षुल्लक जी से इतने प्रभावित हुए कि उनके साथ विहार करते हुए बांदरी तक जा पहुंचे और साथ ही साथ वहाँ क्षुल्लक जी की प्रेरणा से वीरेन्द्र जी ने भी मोक्षमार्ग की ओर कदम बढायें और बाद में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ली और वे आज मुनिपुंगव श्री सुधा सागर जी महाराज एवं मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज के नाम से विख्यात हैं।
सागर में क्षुल्लक गुण सागर जी के ज्ञान व चर्या से प्रभावित होकर राजकुमारी सी सुकोमल कन्या कुमारी सुनीता ने एक वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और बाद में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर आर्यिका श्री 105 दृढ़ मति माताजी के नाम से संपूर्ण भारतवर्ष में दृढ निश्चयी साधिका के रुप में धर्म ध्वजा फहरा रही है, उन्हीं की गृहस्थ अवस्था की बहन अनीता जी ने भी आप का सानिध्य प्राप्त किया और आज वह संघस्थ बाल ब्रहम्चारिणी अनीता दीदी के रूप में आत्म कल्याण कर रही है व संघ का संचालन कर अनेक जनों को धर्म मार्ग की ओर प्रेरित कर रही है, ऐसे उपकारी क्षुल्लक गुण सागर जी महाराज ने अनेक सांसारिक जीवों के आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है ।
क्षुल्लक गुण सागर जी ने यह जान लिया कि मोक्ष मार्ग में यह लंगोटी भी बाधक है इससे छुटकारा पाना चाहिए और आचार्य सुमति सागर जी महाराज से निवेदन किया । विनयपूर्ण निवेदन में साधक की दृढ़ता को देखते हुए वर्तमान शासन नायक भगवान महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक पर, 31 मार्च 1988 को अनेक चमत्कारो के साक्षी भगवान चंद्रप्रभु जी के समक्ष सोनागिर सिद्धक्षेत्र में आचार्य सुमतिसागर जी महाराज ने 2 दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षाएँ प्रदान की और क्षुल्लक गुण सागर जी के ज्ञान के क्षयोपशम को देखते हुए उन्हे दिगंबर मुनि श्री ज्ञान सागर महाराज के नाम से घोषित किया साथ ही क्षुल्लक श्री सन्मति सागर जी महाराज को मुनि श्री सन्मति सागर जी महाराज घोषित किया ।
गुणों के धारी ज्ञान के माध्यम से सबके उपकारी मुनि ज्ञानसागर जी ने अपने ज्ञान से अपने दीक्षा गुरु आचार्य श्री सुमति सागर जी को प्रभावित कर सोचने पर मजबूर कर दिया, दीक्षा का 1 वर्ष भी पूर्ण नहीं हुआ और उत्तर प्रदेश के सरधना, जिला मेरठ (म.प्र) में दिनांक 30 जनवरी 1989 को आपको अपार जनसमूह के मध्य पंच परमेष्ठी में वर्णित चतुर्थ परमेष्ठी उपाध्याय पद प्रदान किया अब आप उपाध्याय ज्ञान सागर जी के नाम से जग में विख्यात हो गए ।
जैनों को जैनत्व की बात कहना आसान है लेकिन ऐसे जैन जो जैन होकर भी अपने आप को जैन नहीं मानते हैं लेकिन उनके वंशज श्रावक कहलाते थे आज वे ‘सराक’ कहलाते हैं । देश के दुर्गम प्रदेश झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा में ये घोर जंगल में निवास करते हैं, उपाध्याय ज्ञानसागर जी ने अपने ज्ञान के नेत्र खोले और चले गए इन प्रदेशों के बीहड़ क्षेत्र तडाई ग्राम (जिला रांची) में अपने बिछुड़े हुए भाइयों के पास। जहाँ श्रावक की चर्या असंभव हो वहां एक मुनि का पहुँचना बड़े आश्चर्य का विषय था, लेकिन स्व-पर कल्याण के लिए निकले संतो को कब परवाह थी कि क्या होगा… सिर्फ एक विश्वास था जो होगा वह जैनत्व के लिए गौरव होगा । आपने सराक बाहुल इलाके में चातुर्मास स्थापित किया, झोपड़ियों में निवास कर अपने बिछुड़े सराको को बताया कि, तुम ‘श्रावक’ हो तुम्हारे पूर्वजों ने जैनत्व को धारण किया था, तब उपाध्याय श्री ने उन्हें अपना इतिहास बताया व गर्व की अनुभूति करवाई, सराक क्षेत्रों में धार्मिक पाठशाला, मंदिर, अनेक चिकित्सालय, छात्रवृत्ति, अनेक शिक्षण प्रशिक्षण शिविर, तीर्थयात्रा आदि करवाई । ऐसे उपाध्याय ज्ञानसागर जी ने मुश्किल कार्यो को आसान किया और जैन समाज की मुख्यधारा में सराकों को सम्मिलित कराया, तभी से वे “ सराकोंद्धारक” के रूप में प्रसिद्ध हो गए ।
अपने ज्ञान गुण के माध्यम से उपाध्याय ज्ञानसागर जी निरंतर चिंतनशील रहते हैं, वह महसूस करते थे कि, यदि हम हमारे उच्च शिक्षित व्यवसायिक डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, प्रशासकीय – शासकीय अधिकारी, बैंक कर्मी, शिक्षक, पत्रकार, संपादक, वैज्ञानिक, विद्वान, ब्रहमचारी आदि को संगठित कर उनको जैनत्व के उन्नयन में सहायक बनायें तो, अहिंसा, शाकाहार, अपरिग्रह का संदेश बहुत जल्दी प्रसारित होगा । उपाध्याय पद पर रहते हुए अपने अनेक सम्मेलन गोष्ठियाँ आयोजित सबको संगठित किया, आज अनेक संगठन जैन जगत के गौरव को स्थापित किया ।
उपाध्याय श्री द्वारा की जाने वाली गतिविधियों का एक अहम भाग था जेलों में प्रवचन । सैकडों कैदियों को सुधारने कि दृष्टि से आचार्य श्री जेलों में प्रवचन देते थे जेल अधिकारी उस समय दंग रह जाते है जब प्रवचन के दौरान कैदी रो पड़ते हैं और आजीवन, मांस, मदिरा, जुआ आदि का त्याग कर देते थे ।
उत्तर- दक्षिण, पूर्व- पश्चिम सभी प्रदेशों में आपके पद विहार हुए हैं अनेक पंचकल्याणक वेदी प्रतिष्ठा, मंडल विधान के साथ प्रतिभावान बच्चों को सम्मानित कराना, विद्वत जगत व गणमान्य जनों को अनेक पुरस्कार श्रुत संवर्धन आदि से सम्मानित कर उन्हें समाज के सामने प्रस्तुत करना उपाध्याय श्री की प्रेरणा रही थी, जिससे अनेक प्रतिभाएं निकल कर आई थी । भारतवर्ष में सर्वाधिक सम्मेलन में पुरस्कार ज्ञान सागर जी महाराज के सानिध्य में ही प्रदान किए जाते थे, जो समाज को निरंतर प्रेरणा प्रदान कर रहे है ।
अनेकों बार पुज्य श्री के आहार जहाँ होते थे तो पुज्य श्री के चरण केशर से उस पाटे पर छप जाते थे जहाँ पुज्य श्री खड़े होते थे ।
प्रात: स्मरणीय आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज (छाणी) की परम्परा में 25 वर्ष तक उपाध्याय के रूप में संपूर्ण देश में धर्म प्रभावना करने वाले ज्ञान सागर जी महाराज को परम्परा के पंचम पट्टाचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज की समाधि के उपरांत, सम्पूर्ण चतुविंघ संघ व देशभर से उमड़े जन सैलाब के बीच आपको आचार्य शांति सागर जी परम्परा (छाणी) का षष्ठ पट्टाधीश आचार्य पद 27 मई 2013 को प्रतिष्ठापित किया गया, अतिशय क्षेत्र बड़ागाँव(जिला बागपत) जहाँ विश्व का सबसे बड़ा त्रिलोक तीर्थ निर्मित है उसी की तलहटी में यह आयोजन जिसे आचार्य पदारोहण कहते है सम्पन्न हुआ था ।
आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज का स्वप्न जो उनके सामने पूर्ण नहीं हो पाया उसे पूर्ण करने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी अब आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज को मिली और 2014 में उनके त्रिलोक तीर्थ बड़ागांव में वर्षायोग का संयोग बना और 4 माह में मानों कार्य को पंख लग गए और स्याद्वाद परिवार ने आचार्य श्री के निर्देशन में कार्य को पूर्ण किया । फरवरी 2015 में देश के अनेक शीर्षस्थ आचार्य, उपाध्याय, साधु, आर्यिका संघ सैकड़ो त्यागी वृतियों व कई हजारो श्रद्धालुओं की उपस्थिति में त्रिलोक तीर्थ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का अभूतपूर्व विश्वस्तरीय आयोजन संपन्न हुआ ।
2015 का चातुर्मास सिद्ध क्षेत्र सोनागिर जी, जिला – दतिया (मध्य प्रदेश) में अभूतपूर्व धर्म प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ है जिसमें आचार्य श्री ज्ञानसागर जी सोनागिर प्रवास के दौरान पहाड़ी स्थित 57 नंबर मंदिर (श्री चंद्रप्रभ भगवान मन्दिर) में ही प्रवास रत रहे सिर्फ दिन में ही प्रवचन, आहार व कार्यक्रम में सान्निध्य प्रदान करने हेतु क्रमशः सभी मंदिरों, आश्रमों एवं धर्मशालाओं में नीचे आते थे ।
इसी श्रृँखला में आचार्य श्री का वर्ष 2016 का मंगल वर्षायोग उसी पावन मातृभूमि की माटी, जी हाँ मुरैना (मध्य प्रदेश) को प्राप्त हुआ, इस वर्षायोग के दौरान “ज्ञानतीर्थ” के निर्माण कार्य को गति प्राप्त हुई और यह धर्मप्रभावना की दृष्टि से ऐतिहासिक वर्षायोग सिद्ध हुआ ।
आपके सानिध्य में आगरा नगर में 2018 फरवरी में दूसरे जिनालय का ऐतिहासिक पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ और एक बार पुनः एक नवीन जिन मंदिर की स्थापना हुई ।
वर्तमान में वर्धमान के जिन धर्म प्रभावना का यह उगता सूरज बारा राजस्थान में 15 नंवबर 2020 को तीर्थंकर महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस पर धर्म ध्यान कर समाधिस्थ हो अनंत अस्त हो गये।
एक अदभुत संयोग था, पुज्य श्री का जन्म (दीक्षा) भगवान महावीर के जन्म कल्याणक पर एवं समाधि भगवान महावीर के निर्वाण दिवस पर ।
आज 1 मई पुज्य श्री के अवतरण दिवस पर विनयांजलि अर्पित कर पुण्यात्मा आचार्य श्री के चरण पादुका पर श्रद्धापूर्वक पुष्प अर्पित कर गुरूदेव को बारंबार नमन नमोस्तु।