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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित हाइकु

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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित जापानी छंद में हाइकु की व्याख्या

हाइकु नंबर -69

साधन नहीं
साधना आवश्यक
मात्रा बढ़ा लो

हे आत्मन् ! रोग अनादि का है पकड़ में नहीं आ रहा है यही तो रोग की तीव्रता है। वेदना कही भी नहीं जा रही है और सही भी नहीं जा रही है वह भयानक रोग है राग का। अहो ! हर बार वही भूल करता है वही-वही भूल अनंतो बार करना यही तो मूल भूल है। सुधारों आत्मन् ! निहारो स्वयं को, आखिर तुमने गलती क्या की है ? यही ना कि साधन अनंतों बार जुटाए, देव शास्त्र गुरु का समागम प्राप्त किया, व्रत उपवास किए, शास्त्राभ्यास भी किया लेकिन जिस आत्मसाधना के लिए यह सब कर रहा था उसे तो भूल ही गया। लक्ष्य के बिना दौड़ता रहा तो मंजिल से तो भटकेगा ही ना ? अन्य साधकों को देखकर साधन बढ़ाता जाता है बाहरी आयाम जुटाता रहता है किन्तु आत्मसाधना रुप विशुद्ध परिणाम पर ध्यान नहीं देता। किसी के पुण्य की बाहर में सम्पदा देखकर प्रसिद्धि आदि फल देखकर पुण्य इकट्ठा करना चाहता है। परोपकार आदि पुण्य के कार्य भी करता है लेकिन उसकी निरीहवृत्ति को पकड़ नहीं पाता जो कि मुक्ति का कारण है इसलिए बाहर में ही अटक जाता है। ध्यान रख,साधन साध्य नहीं है और साधना भी साध्य नहीं है। जब साधना में भी तृप्त नहीं होना है तो साधन में तृप्त हो जायेगा तो क्या होगा ? अहं भाव आयेगा तो “अर्हम्” भाव से वंचित रह जायेगा। बिना साधना के साध्य की कामना करना हंसी का पात्र बनना है। जैसे -पूरी तैयारी के बिना नाटक में पर्दा खोल दे तो हंसी का पात्र ही होगा,अब तक यही हुआ एक बार सच्ची साधना के क्षेत्र में आ, सिद्धि अवश्य प्राप्त होगी। साधन इकट्ठे करने में काय और वचन को ही तपाना पड़ता है किन्तु साधना के लिए आत्मा को तपाना पड़ता है। अज्ञानी व्यक्ति दस दिन के निर्जल उपवास कर लेता है किन्तु तत्त्वज्ञान का जल अन्तर्मुहूर्त के लिए भी नहीं पी सकता। तत्त्वज्ञान की रुचि ही नहीं, इसमें इसे प्रसिद्धि नहीं मिलती और उसे सिद्धि चाहिए ही नहीं। अज्ञानी साधनों में जीता है ज्ञानी साधना में जीता है। वह साधनों की मात्रा घटाता है और साधना की मात्रा बढ़ाता है जब बाहर में साधन शून्य हो जाते हैं तब ज्ञानी की साधना पूर्ण हो जाती है, वह पूर्णतः स्वाश्रित होकर अपने को अपने में पा लेता है। स्वयं को देखने जानने योग्य विशुद्धि का नाम ही साधना है। अपने को अपने में ठहरने के योग्य हो जाना हीं साधना है। जबकि साधन में देह को टिकाने के निमित्त जुटाए जाते हैं।
आत्मन् ! यदि लक्ष्य सिद्धि का नहीं है तो सारी साधना विराधना ही सिद्ध होगी, सर्व साधन बंधन के कारण ही होंगे अतः लौकिक गृह का नहीं निजगृह का स्मरण करो, प्रतिकूलता में कर्मोदय का विचार करो,। यही छोटी-छोटी साधना तुम्हारा पथ प्रदर्शन करेगी,शाश्वत् साध्य की सिद्धि देगी।
यही गुरुदेव कहते हैं……
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